Natasha

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राजा की रानी

अभया ने भी इस दफे गुस्स् से जवाब दिया, “मेरा जो होना होगा हो जाएगा, तुम्हारी जब इच्छा हो देश लौट आओ! मेरे लिए तुम क्यों इतना कष्ट सहोगे? तुम्हारी कौन होती हूँ मैं? इस तरह ताना कसने की अपेक्षा...”

उसकी बात पूरी भी न होने पाई थी कि रोहिणी भइया करीब-करीब चीत्कार कर उठे, “सुनिए श्रीकान्त बाबू, दो रोटी पका देने के लिए- ये बातें आप जरा सुन रखिए। अच्छा, आज से कभी तुमने यदि मेरे लिए रसोईघर में पैर रखा तो तुम्हें बहुत ही बड़ी- बल्कि मैं होटल में-” कहते-कहते उनका गला रुलाई से भर आया, वे धोती का छोर मुँह पर लगाकर तेजी से कदम रखते हुए मकान के बाहर हो गये। अभया ने अपना उतरा हुआ चेहरा नीचे झुका लिया- न जाने ऑंखों के ऑंसू छिपाने के लिए या यों ही; किन्तु मैं तो एकदम काठ हो गया। कुछ दिनों से दोनों के बीच अनबन हो रही है, यह तो ऑंखों से ही देख लिया; किन्तु, इसका गहरा हेतु दृष्टि से बिल्कु'ल परे होने पर भी वह क्षुधा और भोजन बनाने की त्रुटि से बहुत-बहुत दूर है, यह समझने में मुझे जरा-सा भी विलम्ब नहीं लगा। तो फिर, क्या पति खोजने की बात भी-

मैं उठकर खड़ा हो गया। इस नीरवता को भंग करने में मुझे खुद भी जैसे संकोच होने लगा। कुछ इधर-उधर करके अन्त में मैंने कहा, “मुझे बहुत दूर जाना है- इस समय तो अब चलता हूँ।”

अभया ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “अब कब आइएगा?”

“बहुत दूर!”

“तो फिर जरा ठहर जाइए” कहकर अभया बाहर चली गयी। पाँच-छह मिनट बाद लौटकर आई और मेरे हाथ में एक टुकड़ा कागज देकर बोली, “जिस काम के लिए मैं आई हूँ वह सब इसमें लिख दिया है। पढ़कर जो नीक जँचे सो कीजिएगा। मैं आपसे कुछ अधिक कहना नहीं चाहती।” इतना कहकर गले में ऑंचल डालकर आज उसने मुझे प्रणाम किया और फिर उठकर पूछा, “आपका ठिकाना क्या है?”

सवाल का जवाब देकर मैं उस छोटे से कागज को मुट्ठी में छिपाकर धीरे-धीरे निकल आया। बरामदे के बाहर का वह मोढ़ा इस समय शून्य था। रोहिणी भइया को भी मैं आसपास कहीं न देख सका। डेरे पर पहुँचने तक मैं अपना कुतूहल दमन न कर सका! पास में ही रास्ते के बगल में एक छोटी-सी चाय की दुकान देखकर उसमें घुस गया और लैम्प के उजाले में मैंने उस पत्र को अपनी ऑंखों के सम्मुख खोलकर रख लिया। पेंन्सिल की लिखावट थी किन्तु ठीक पुरुष के से हस्ताक्षर थे। सबसे पहले उसने अपने पति का नाम और उसका पुराना ठिकाना देकर नीचे लिखा था, “आज आप जो अपने मन में धारणा लिये जा रहे हैं सो मैं जानती हूँ; और विपत्ति के समय मुझे आपका कितना भरोसा है सो भी आप जानते हैं। इसीलिए मैंने आपका ठिकाना पूछ लिया है।”

अभया के इस लेख को मैंने बार-बार पढ़ा परन्तु उसमें इन कुछ थोड़ी-सी बातों के सिवाय और किसी भी अतिरिक्त बात का अन्दाजा नहीं लग सका। आज इन लोगों का परस्पर व्यवहार अपनी नजर से देखकर कोई बाहरी आदमी जो भी सोच सकता है उसका अनुमान करना अभया सरीखी बुद्धिमती रमणी के लिए बिल्कुाल ही कठिन नहीं है। किन्तु फिर भी वह अन्दाज सही है या गलत, इस सम्बन्ध में बिन्दु-मात्र भी उसने इशारा नहीं किया। उसके पति का नाम और ठिकाना तो मैंने पहले ही सुना है, पर विपत्ति के समय वह उसकी खोज करना चाहती है या नहीं, अथवा और कौन-सी विपत्ति अवश्यम्भावी समझकर उसने मेरा पता ले लिया है- आदि किसी बात का आभास तक भी मैं उस लेख में खोजकर बाहर न निकाल सका। बातचीत से अनुमान होता है कि रोहिणी किसी दफ्तर में नौकरी पा गया है। किस तरह पा गया है सो भी मुझे मालूम नहीं हुआ। पर हाँ खाने-पीने की दुश्चिन्ता कम से कम मेरी तरह उन्हें नहीं है- पूड़ियाँ भी खाने को मिल जाती हैं। फिर भी, अभया ने किस किस्म की विपत्ति की सम्भावना के लिए मुझे तैयार कर रक्खा है और ऐसा करने से उसने क्या लाभ सोच रक्खा है, सो अभया ही जाने।

बाहर निकलकर रास्ते-भर मैं केवल इन्हीं लोगों के विषय में सोचता सोचता डेरे पर पहुँचा। कुछ भी स्थिर नहीं कर सका। लेकिन यही निश्चय किया कि अभया का पति कोई भी क्यों न हो और चाहे जहाँ, चाहे जिस तरह क्यों न हो, स्त्री की विशेष अनुमति बगैर उसे खोज निकालने का कुतूहल मुझे रोक ही रखना होगा।

दूसरे दिन से मैं फिर अपनी नौकरी की उम्मीदवारी में लग गया; किन्तु हजारों चिन्ताओं में भी अभया की चिन्ता को मन के भीतर से झाड़कर नहीं फेंक सका।

किन्तु, चिन्ता चाहे जितनी ही क्यों न करूँ, दिन के बाद दिन समान-भाव से लुढ़कने लगे। इधर भाग्यवादी दादा ठाकुर का प्रफुल्ल चेहरा धीरे-धीरे मेघाच्छन्न होने लगा। भोजन में तरकारियाँ भी पहले परिमाण में और फिर संख्या में धीरे-धीरे विरल होने लगीं। किन्तु, नौकरी ने मेरे सम्बन्ध में जरा भी अपना मत-परिवर्तन नहीं किया। जैसी नजर से उसने पहिले दिन देखा था महीने भर से अधिक बीतने के बाद भी ठीक उसी नजर से वह देखती रही। तब न जाने किसके ऊपर मैं क्रमश: उत्कण्ठित और विरक्त होने लगा। किन्तु, उस समय तक मैं यह नहीं जानता था कि जब तक नौकरी करने की पूरी जरूरत न हो तब तक वह दर्शन नहीं देती। यह ज्ञान एक दिन एकाएक रास्ते में रोहिणी बाबू को देखकर प्राप्त हुआ। वे बाजार में रास्ते के किनारे शाक-सब्जी खरीद रहे थे। मैं चुपचाप उनके निकट खड़ा होकर देखता रहा। यद्यपि उनके शरीर पर के कपड़े, जूते आदि जीर्णता की प्राय: चरम सीमा को पहुँच चुके हैं- भयंकर कड़ी धूप में सिर पर एक छतरी तक नहीं है, किन्तु, खाद्य पदार्थ वे बड़े आदमियों की तरह खरीद रहे हैं। इस कार्य में ढूँढ़-खोज और जाँच-परख की भी कोई हद नहीं है। झंझट और जहमत चाहे जितनी क्यों न उठानी पड़े अच्छी चीज खरीदने की ओर उनके प्राण लगे हुए हैं। पलक मारते सारा व्यापार मेरी नजर के सामने तैर आया। इस खरीद-बिक्री के भीतर से उनका व्यग्र व्याकुल प्रेम कहाँ जाकर पहुँच रहा है, यह मानो मैं सूर्य के प्रकाश के समान सुस्पष्ट देख सका। क्यों यह सब लेकर उन्हें अपने मकान पर पहुँचना ही चाहिए और क्यों उन्हें इन सब चीजों का मूल्य देने के लिए नौकरी खोजनी ही पड़ी, इस समस्या की मीमांसा करने में जरा-सी देर न लगी। आज मैं साफ-साफ समझ गया कि क्यों इन मनुष्यों के जंगल में उन्होंने अपना रास्ता पा लिया है और क्यों में अभी तक असफल रहा हूँ।

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